घनानंद (1673-1760) रीतिकाल के एक प्रमुख कवि थे, जिन्हें रीतिमुक्त धारा का प्रतिनिधि कवि माना जाता है। उनका जन्म दिल्ली के आसपास हुआ था, लेकिन उनके जन्मस्थान और परिवार के बारे में अधिक स्पष्ट जानकारी नहीं है। घनानंद साहित्य और संगीत दोनों में निपुण थे, और मुगल सम्राट मुहम्मद शाह ‘रंगीले’ के दरबार में मीरमुंशी (मुख्य सचिव) के पद पर कार्यरत थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा साहित्य और संगीत में हुई थी, जिससे उनके काव्य में गहरी संवेदनशीलता और शिल्प दिखाई देता है।
घनानंद के जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू उनका प्रेम प्रसंग था। कहा जाता है कि वे ‘सुजान’ नाम की एक नर्तकी पर आसक्त हो गए थे, जिससे उनका जीवन और साहित्य गहराई से प्रभावित हुआ। इस प्रेम ने उनके जीवन को एक अलग दिशा दी, और बाद में जब दरबार में एक घटना के कारण उन्हें मुगल दरबार से निष्कासित कर दिया गया, तब वे वृंदावन चले गए। वहां उन्होंने अपना जीवन कृष्ण-भक्ति को समर्पित कर दिया और निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षा ली।
वृंदावन में रहते हुए घनानंद ने राधा-कृष्ण की भक्ति में लीन होकर कई रचनाएँ लिखीं। उनके काव्य में प्रेम और वियोग की अनुभूतियाँ प्रमुख रूप से उभरती हैं। उन्होंने सांसारिक प्रेम और आध्यात्मिक प्रेम का अनूठा मिश्रण अपने काव्य में प्रस्तुत किया। ‘सुजान’ उनके काव्य में एक प्रतीक के रूप में उभरती हैं, जिसके माध्यम से उन्होंने प्रेम और विरह की गहन अनुभूतियों को व्यक्त किया है।
घनानंद की मृत्यु मथुरा पर अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण के दौरान हुई थी। उनकी रचनाओं में प्रेम, वियोग और भक्ति का सुंदर चित्रण मिलता है, जो उन्हें रीतिकाल के सबसे महत्वपूर्ण कवियों में से एक बनाता है। उनका साहित्य आज भी प्रेम और भक्ति की गहरी संवेदनशीलता का प्रतीक है।