रघुवीर सहाय की कविताओं की मूल संवेदना

रघुवीर सहाय की कविताओं की मूलसंवेदना | Hindi Stack

रघुवीर सहाय प्रगतिशील काव्यधारा ‘नई कविता’ के प्रतिनिधि कवि हैं। उनकी कविताओं का मूल स्वर यथार्थ का है, जो मूल रूप से आज़ादी के बाद के भारत का यथार्थ है।रघुवीर सहाय की कविता अपने समय, समाज, राजनीति तथा परिवेश के तनाव की निश्छल अभिव्यक्ति है उनके कविता न तो अनुकरण और ना किसी लीक पर चली है।रघुवीर सहाय सत्ता की राजनीति, नेताओं के छल-छद्म, भ्रष्टाचार को प्रकट करने वाले कवि रहें हैं। सोठोत्तरी हिंदी कविता के दौर में रघुवीर सहाय की कविताओं में राजनीतिक, सामाजिक स्थितियों, कार्यों, परिणतियों, दृष्टिकोणों, विचारों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आधार बनाकर उनके भीतर से व्यक्ति, समुदाय और देश की सभंवत: पूरे युग की आत्मा को पहचानने का काव्य प्रयास है।उनकी कविता उनके प्रवेश की उपज है। उन्होनें जीवन, समाज, राजनीति आदि सभी को अपनी खुली आँखों से देखा, कठोर यथार्थ को अनुभव किया और वही कुछ अपनी कविताओं में व्यक्त किया।

रघुवीर सहाय का काव्य सृजन हिंदी काव्य धारा में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। अज्ञेय द्वारा संपादित ‘दूसरा सप्तक’ से काव्य क्षेत्र में पदार्पण करने वाले रघुवीर सहाय का कार्य क्षेत्र अत्यंत विशाल एवं विस्तृत है। एक तरफ जहां रघुवीर सहाय सामाजिक विषय में सामाजिक मूल्यों, माननीय मूल्यों एवं राजनीतिक भ्रष्टाचार के प्रति घृणा और आक्रोश जाहिर करते हैं वहीं दूसरी तरफ उनका मन प्राकृतिक सौंदर्य को देखकर मंत्रमुग्ध हो उठता है।रघुवीर सहाय की कविताएं सामाजिक दायित्वों के प्रति प्रतिबद्ध हैं। जिसमें की समाज के समस्त घात-प्रतिघात प्रतिबिंबित है। समाज के सभी हलचलो को रघुवीर सहाय की रचनाओं में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। एक नागरिक के उत्तरदायित्व की भावना से ओतप्रोत होकर रघुवीर सहाय ने अपने काव्य का सृजन किया है। डाँ. राकेश के अनुसार:

“रघुवीर सहाय की कविता में वास्तविकता का दवाब अधिक है वे जीवन और समाज की वास्तविकता स्थितियों के बीच अपना आकार बनाती है। कवि जीवन के हर कोने से विषयवस्तु को ग्रहण करता है।” (1)

‘सत्ता और राजनीति’ से भी उनकी कविता परहेज़ नहीं करती। सत्ता और राजनीति के गंदे खेल से वह जनता को आगाह करती है व्यवस्था की विडंबनाओं से तड़पती मानवीयता आक्रोश जगाती है। हमारे समय का आदमी कितनी तरह से उलझा हुआ है, कितना विवश और अकेला है,उसे तथातथ्य रचने की लगातार कोशिश से उनकी कविता जूझती है। रघुवीर सहाय में आक्रोश और कुंठा की भावनाएँ अधिक शाक्तिशाली रूप में अभिव्यक्त हुई है। विद्रोह, व्यक्ति, स्वातंत्र्य, और अकेलेपन की अनुभूति का प्रकाशन अब रघुवीर सहाय की कविता का मुख्य उद्देश्य है। मैनेजर पाण्डेय के अनुसार:

“रघुवीर सहाय की कविता खब़र देती है।वह जिदंगी की वास्तविकताओं,और सच्चाइयों के अनुभव की खब़र देती है,जाहिर है,कविता की खब़र जैसा नहीं होती।अख़बार की ख़बर जहाँ से शुरू होती है और पहले की ओर जहाँ से खत्म होती है उसके बाद की खबर देती है रघुवीर सहाय की कविता।”(2)

रघुवीर सहाय की कविताएँ मूल्यहीनता के कटघरे को रौंदती हुई मानवीय संवेदना के धरातल पर जीवन संदर्भों से जुड़कर आम जन के पास पहुँचती है। रघुवीर सहाय ने अपने काव्य में नेताओं की मानसिकता एवं राष्ट्र के सही हालातों का वर्णन किया है। अधिकांश सत्ताधारी लोग स्वार्थसिद्धि में लगे हुए है, जनता को क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्मवाद आदि में फँसाकर खुद की कुर्सी की साधना कर रहे हैं। कुर्सी की सेवा करना नेताओं का अधिकार बन गया है। ये वृद्ध होने पर भी शिशुओं की तरह कुर्सी के लिए लड़ते रहते हैं। ऐसे में कवि संसद सदस्यों के चरित्र को बेनकाब करता हुआ कहता है-

”सिहासन ऊँचा है, सभाध्यक्ष छोटा है अगणित पिताओं के एक परिवार के मुँह बाए बैठे हैं लड़के सरकार के लूले, काने, बहरे विविध प्रकार के हल्की-सी दुर्गन्ध से भर गया है सभाकक्ष सुनो वहाँ कहता है मेरी हत्या की करुण गाथा हँसती है सभा, तोंद मटका ठठाकर अकेले पराजित सदस्य की व्यथा पर”(3)

संसद सदस्यों को ‘लूले’, ‘काने’, व ‘बहरे’ कहकर कवि ने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था पर तीक्ष्ण व्यंग्य किया है।

आत्महत्या के विरूद्ध रघुवीर सहाय का सीढ़ियों पर धूप के बाद का दूसरा काव्य संग्रह है। इस संग्रह में कवि ने अपने ढंग से युग की विसंगतियों और विडम्बनाओं को देखा भाला और मूल्यहीनता को पहचाना है। इनकी कविताओं में आज के राजनैतिक, ऐतिहासिक, और सामाजिक यथार्थ का सही दस्तावेज है जो तिल मिलाती है और कोंचती है इनकी कविता में राजनीति की अर्थहीनता है , और अपनी निजी बैचनी है, कसमसाहट है जो मन को त्रासते हैं। इस संग्रह की कवितायें न नारेबाजी की कविता है और न ही आत्मपीड़ा की है बल्कि एक आत्मचेता व्यक्ति की जनता के साथ सही सम्बन्धों की खोज करना है ।वे एक जागरूक संवेदनशील और सजग व्यक्ति की यथार्थ से रूही संसर्गजन्य अनुभूतियों की कवितायें है। ‘सुरेश शर्मा’ ने सही लिखा है कि

“आत्महत्या के विरुद्ध कविता की संरचना इस तरह की है कि कवि बार- बार अन्याय और घुटन की स्थितियों से निकलकर वहाँ उसके अपने लोग है।”(4)

रघुवीर सहाय के कविता संग्रह ‘आत्महत्या के विरूद्ध’ व हँसो हसो जल्दी हंसो कविता शोषक वर्ग के विरोध मे है हिन्दुस्तान में हो रहे अत्याचारों के पीछे ‘पूँजीवाद’ का हाथ है उन्होने अपने वैयक्तिक जीवन की अभिव्यक्ति अपनी कविता में व्यक्त की है।

“अस्पताल में मरीज़ छोड़कर आ नहीं सकता तीमारदार दूसरे दिन कौन बतायेगा कि वह कहाँ गया निष्कासित होते हुए मैंने उसे देखा था। जयपुर अधिवेशन जब समेटा जा रहा था।”(5)

कितनी त्रासदी स्थिति है यदि आज कोई तीमारदार अस्पताल में मरीज छोड़कर निश्चित घर नहीं लौट सकता क्योंकि असुरक्षा के इस वातावरण में इसकी पूरी सम्भावना है कि दूसरे दिन अस्पताल वह गायब कर दिया है उसकी मृत्यु हो गयी हो।चालाक शक्तियाँ समूचे परिवेश को अविश्वसनीय बना देती है। दुर्घटनाओं के बीच स्वयं अपने अस्तित्व को लेकर परायेपन का अनुभव होने लगता है।

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रघुवीर सहाय की काव्य-यात्रा स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र की विचार-यात्रा है| शासन-प्रणाली के रूप में लगभग पांच दशक के लोकतंत्र की विकास-यात्रा हमें रघुवीर सहाय के कवि-कर्म में देखने को मिल जाती है|रघुवीर सहाय ने आज़ादी के दौर में अर्जित नये मूल्यों की जब-जब हत्या होते देखी, उन्होंने एक सच्चे कलाकार की तरह उसका प्रतिरोध किया। आजादी के बीस बरस बाद भी जब समानता, बंधुत्व और आजादी जैसे जनवादी मूल्यों से साधारण जन वंचित रहें तो उनका रचनाकार चीत्कार कर उठा।  रघुवीर सहाय ने अपनी कविता ‘एक अधेड़ भारतीय आत्मा’ में कहा है –

“बीस वर्ष खो गये भरमें उपदेश में एक पूरी पीढ़ी जनमी पली पुसी क्लेश में बेगानी हो गयी अपने ही देश में वह अपने बचपन की आज़ादी छीनकर लाऊँगा।”(6)

इस स्थिति का जिम्मेदार वह तंत्र और नेतृत्व था, जिसने आज़ादी के बाद सामाजिक आधारों को बदले बगैर ‘लोकतंत्र’ की कल्पना की थी।इस लोकतंत्र के हवाले से उसने जनता की मुक्ति और विकास का वायदा किया था। लेकिन समय बीतने के साथ ही इस तंत्र के लोकतान्त्रिक दावों की कलई खुलती गई और इन दावों का असत्य प्रकट होता गया।

रघुवीर सहाय ने मध्यवर्गीय समाज को यह अहसास दिलाया कि अकेले-अकेले रहकर हर कोई अधिनायकवादी ताकतों के हाथों मारा जायेगा। अधिकनायकवादी ताकतों के खिलाफ अगर संगठित नहीं होंगे तो हर ‘रामदास की हत्या होगी’। अकेले व्यक्ति की हत्या का मर्मभेदी चित्र खींच कर एक तरह से हम सबको आगाह किया:

“खड़ा हुआ वह बीच सड़क पर दोनों हाथ पेट पर रखकर सधे कदम रख करके आये लोग सिमट कर आंख गड़ाये लगे देखने उसको जिसकी तय था हत्या होगी।”(7)

मध्यवर्ग के बुद्धिजीवी प्रायः पक्षधरता से कतराते हैं और सोचते हैं कि ये सुरक्षित हैं। रघुवीर सहाय इस कविता के माध्यम से यह संकेत देते हैं कि पक्ष न लेने से ही रामदास की हत्या होती है और इस हत्या के मूकदर्शक बने मध्यवर्ग की निष्क्रियता के कारण ही अधिनायकवाद आम आदमी का दमन एंव शोषण कर पाता है।

निष्कर्ष :

रघुवीर सहाय समाज और उसके हर अनुचित और अमानवीय गतिविधियों के प्रति संवेदनशील हैं और उनका विरोध पूरी मुखरता से करते हैं। समाज में फैले व्यभिचार शोषण जाति प्रथा नारियों पर अत्याचार सरकारी अफसरों का भ्रष्ट होना दफ्तर की लापरवाही शायद ही कोई ऐसा विषय हो जो रघुवीर सहाय की काव्य संवेदना के भीतर न समाई हो।

संदर्भ :

  1. आधुनिक कविता भाग दो -डॉ रामकिशोर/ हेंमत कुकरेती , सतीश बुक डिपो नई दिल्ली ,2013 ,पृष्ठ संख्या -141
  2. घुवीर सहाय के गद्य साहित्य में सामाजिक चेतना – डॉ.आरती लोकेश गोयल , नार्दन बुक सेंटर नई दिल्ली,पृष्ठ संख्या -60
  3. आत्महत्या के विरुद्ध -रघुवीर सहाय ,तृतीय संस्करण 1985 , पृष्ठ संख्या -18
  4. समकालीन रचना -दृश्य और रघुवीर सहाय का कृतित्व -डॉ.शीलदानी, भावना प्रकाशन , प्रथम संस्कंरण -सन् 2004, पृष्ठ संख्या-61
  5. समकालीन रचना -दृश्य और रघुवीर सहाय का कृतित्व -डॉ.शीलदानी, भावना प्रकाशन , प्रथम संस्कंरण – सन् 2004, पृष्ठ संख्या-61
  6. रघुवीर सहाय रचनावली -1, पृष्ठ संख्या-110-111
  7. रघुवीर सहाय रचनावली -1, पृष्ठ संख्या -169

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