आदिकालीन काव्य की कुछ महत्वपूर्ण बातें | Hindi Stack
आदिकालीन काव्य की कुछ महत्वपूर्ण बातें | Hindi Stack
  • आदिकालीन साहित्य में विषयों, काव्य रूपों तथा काव्यभाषा की भरपूर विविधता मिलती है।
  • पंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार सिद्ध कवि सरहपा हिंदी परंपरा के पहले कवि माने जाते हैं।
  • नाथपन्थियों ने योगी को सबसे ऊँचा बताया और जैन कवियों ने अपनी धर्म साधना को सीधेसीधे अभिव्यक्त किया।
  • चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो इस काल का प्रसिद्ध वीर काव्य है। जिसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य की प्रथम रचना मानी है।
  • जगन इतने प्रसिद्ध राजा परमाल के वीर सेनापतिओं आल्हा और उदल के संबंध में परमाल रासो नामक ग्रंथ रचा यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है।
  • बुंदेलखंड में लोकप्रिय आल्हा इसी काव्य ग्रंथ का अंश है।
  • वीरता पूर्ण रचनाओं द्वारा वीरों को प्रेरित करने का कार्य भी इस काल के कवियों ने किया। इस काल का वीरगाथात्मक साहित्य युद्ध की गूँजों से भरा हुआ है।
  • अमीर खुसरो ने दिल्लीमेरठ की खड़ी बोली में मुकरियाँ, पहेलियाँ तथा दोहे रचे हैं।
  • विद्यापति ने कृष्णभक्ति के पदों में श्रंगार का बहुत सुंदर चित्रण किया है। साहित्य समाज का मूर्तिमान प्रतिबिम्ब है। समाज की परिवर्तनशील मनः स्थिति का चित्रण समयसमय पर विविध रूपों में परिलक्षित होता रहा है। जिस कालविशेष में जिस भावनाविशेष की प्रधानता रही है, उसी आधार पर ही इतिहासकारों ने उस काल नामकरण कर दिया।
  • हिंदीसाहित्य का आदिकाल संवत् १०५० से लेकर सवत् १३७५ तक अर्थात् महाराज भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय के कुछ पीछे तक माना जा सकता है।
  • राजाश्रित कवि और चारण जिस प्रकार भीति, श्रृंगार आदि के फुटकल दोहे राजसभाओं में सुनाया करते थे उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रमपूर्ण चरितों, या गाथाओं का वर्णन भी किया करते थे। यही प्रबंधपरपरारासोके नाम से पाई जाती है। जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमनेवीरगाथाकालकहा है।
  • इस काल की जो साहित्यिक सामग्री प्राप्त है उसमें कुछ तो असंदिग्ध है और कुछ संदिग्ध है! असंदिग्ध सामग्री जो कुछ प्राप्त हैं उसकी भाषा अपभ्रंश अर्थात् प्राकृताभास (प्राकृत की रूढ़ियों से बहुत कुछ बद्ध) हिंदी है।
  • प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिंदीसाहित्य का आविर्भाव माना जा सकता है।
  • अपभ्रंश की यह परंपरा, विक्रम की 14वीं शताब्दी के मध्य तक चलती रही। एक ही कवि विद्यापति ने दो प्रकार की भाषा का व्यवहार किया हैपुरानी अपभ्रंश भाषा का और बोलचाल की देशी भाषा का। इन दोनों भाषाओं का भेद विद्यापति ने स्पष्ट रूप से सूचित किया हैदेसिल बअना सब जन मिट्ठा। तें तैसंन जंपओं अवहट्ठा॥ (विद्यापति) अर्थात् देशी भाषा (बोलचाल की भाषा) सबको मीठी लगती है, इससे वैसा ही अपभ्रंश (देशी भाषा मिला हुआ) मैं कहता हूँ। विद्यापति ने अपभ्रंश से भिन्न, प्रचलित बोलचाल की भाषा कोदेशी भाषाकहा है।

सिद्धसाहित्य-(siddh sahitya)

  • सिद्धों द्वारा जनभाषा में लिखित साहित्य कोसिद्धसाहित्य कहा जाता है।
  • यह साहित्य बौद्ध धर्म के वज्रयान शाखा का प्रचार करने हेतु रचा गया।
  • सिद्धों की संख्या 84 मानी जाती है।
  • तांत्रिक क्रियाओं में आस्था तथा मंत्र द्वारा सिद्धि चाहने के कारण इन्हेंसिद्ध कहा गया।
  • 84 सिद्धों में प्रमुख रूप से सरहपा, शबरपा, कण्हपा, लुइपा, डोम्भिपा, कुक्कुरिपा आदि हैं।
  • सरहपा प्रथम सिद्ध है। इन्हें सहजयान का प्रवर्तक कहा जाता है।
  • सिद्ध कवियों की रचनाएँ दो रूपों में मिलती है-
    • दोहा कोष‘(सिद्धाचार्यों द्वारा रचित दोहों का संग्रह)
    • औरचर्यापद’ (सिद्धाचार्यों द्वारा रचित पदों का संग्रह)
  • सिद्धसाहित्य की भाषा को अपभ्रंश कहा जाता है।
  • अपभ्रंश को हिन्दी के संधि काल की भाषा मानी जाती है इसलिए इसेसंधायासंध्या भाषा का नाम दिया जाता है।
  • बौद्धसिद्धों की वाणी में पूर्वीपन का पुट है।

नाथसाहित्य (Nath sahitya)

  • 10 वीं सदी के अंत में शैव धर्म एक नये रूप में आरंभ हुआ जिसेयोगिनी कौल मार्ग’, ‘नाथ पंथयाहठयोगकहा गया।
  • इसका उदय बौद्धसिद्धों की वाममार्गी भोगप्रधान योगधारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ।
  • अनुश्रुति के अनुसार 9 नाथ हैंआदि नाथ (शिव), जलंधर नाथ, मछंदर नाथ, गोरखनाथ, गैनी नाथ, निवृति नाथ आदि।
  • नाथसाहित्य के प्रवर्तक गोरखनाथ थे।
  • शैवनाथों की वाणी में पश्चिमीपन का पुट है।

रासो साहित्य (Raso sahitya)

रासोकाव्य को मुख्यतः 3 वर्गों में बाँटा जाता है

  1. वीर गाथात्मक रासो काव्य: पृथ्वीराज रासो, हम्मीर रासो, खुमाण रासो, परमाल रासो, विजयपाल रासो।
  2. शृंगारपरक रासो काव्य: बीसलदेव रासो, सन्देशरासक, मुंज रासो।
  3. धार्मिक उपदेशमूलक रासो काव्य: उपदेश रसायन रास, चन्दनबाला रस, स्थूलिभद्र रास, भरतेश्वर बाहुबलि रास, रेवन्तगिरि रास।

आदिकाल में प्रवृत्तियाँ

आदिकाल में प्रमुख प्रवृत्तियाँ मिलती है

  • धार्मिकता
  • वीरगाथात्मकता
  • श्रृंगारिकता

आदिकाल में काव्यकृतियाँ

1. प्रबंधात्मक काव्यकृतियाँ :

रासो काव्य, कीर्तिलताकीर्तिपताका (अवहट्ट में) इत्यादि।

2. मुक्तक काव्यकृतियाँ :

खुसरो की पहेलियाँ, सिद्धोंनाथों की रचनाएँ, विद्यापति की पदावली (मैथली में )इत्यादि।

आदिकाल में शैलियाँ (Styles in Aadikal)

डिंगल शैली डिंगल शैली में कर्कश शब्दावलियों का प्रयोग होता है। कर्कश शब्दावलियों के कारण डिंगल शैली अलोकप्रिय होती चली गई।

पिंगल शैली पिंगल शैली में कर्णप्रिय शब्दावलियों का प्रयोग होता है। कर्णप्रिय शब्दावलियों के कारण पिंगल शैली लोकप्रिय होती चली गई और आगे चलकर इसका ब्रजभाषा में विगलन हो गया।

आदिकाल में रासो साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान है। सर्वप्रथम फ्रांसीसी विद्वान गार्सातासी ने रासोशब्द की व्युत्पति पर विचार किया था। अधिकतर रासो काव्य अप्रामाणिक हैं।रामकुमार वर्मा जी ने आदिकाल को चारणकाल की संज्ञा दी है।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने कालों का नामकरण प्रवृति की प्रधानता के आधार पर किया है। हिंदी का प्रथम महाकाव्य पृथ्वीराज रासो को माना जाता है।अमीर खुसरो की पहेलियाँ खड़ी बोली हिंदी में लिखी गई है। विद्यापति की पदावली मैथिली भाषा में लिखी गई है। अपभ्रंश का वाल्मीकि कवि स्वयंभू को कहा जाता है। कवि विद्यापति को अभिनव जयदेव की उपाधि मिली थी।

आदिकालीन कवियों की प्रसिद्ध पंक्तिया

  • बारह बरस लौं कूकर जीवै अरु तेरह लौं जिये सियार/बरस अठारह क्षत्रिय जीवै आगे जीवन को धिक्कार जगनिक
  • भल्ला हुआ जो मारिया बहिणी म्हारा कंतु/लज्जेजंतु वयस्सयहु जइ भग्गा घरु एंतु (अच्छा हुआ जो मेरा पति युद्ध में मारा गया; हे बहिन! यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी समवयस्काओं (सहेलियों) के सम्मुख लज्जित होती।) हेमचंद्र
  • बालचंद्र विज्जवि भाषा/दुनु नहीं लग्यै दुजन भाषा (जिस तरह बाल चंद्रमा निर्दोष है उसी तरह विद्यापति की भाषा; दोनों का दुर्जन उपहास नहीं कर सकते) विद्यापति
  • षटभाषा पुराणं च कुराणंग कथित मया (मैंने अपनी रचना षटभाषा में की है और इसकी प्रेरणा पुराण व कुरान दोनों से ली है) चंदरबरदाई
  • मैंने एक बूंद चखी है और पाया है कि घाटियों में खोया हुआ पक्षी अब तक महानदी के विस्तार से अपरिचित था’ (संस्कृत साहित्य के संबंध में) अमीर खुसरो
  • पंडिअ सअल सत्य वक्खाणअ/देहहिं बुद्ध बसन्त न जाणअ। [पंडित सभी शास्त्रों का बखान करते हैं परन्तु देह में बसने वाले बुद्ध (ब्रह्म) को नहीं जानते।] सरहपा
  • जोइ जोइ पिण्डे सोई ब्रह्माण्डे (जो शरीर में है वही ब्रह्माण्ड में है) गोरखनाथ
  • गगन मंडल मैं ऊँधा कूबा, वहाँ अमृत का बासा/सगुरा होइ सु भरिभरि पीवै, निगुरा जाइ पियासा गोरखनाथ
  • काहे को बियाहे परदेस सुन बाबुल मोरे (गीत) अमीर खुसरो
  • बड़ी कठिन है डगर पनघट की (कव्वाली) अमीर खुसरो
  • छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके (पूर्वी अवधी में रचित कव्वाली) अमीर खुसरो
  • एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा/चारो ओर वह थाल फिरे, मोती उससे एक न गिरे (पहेली) अमीर खुसरो
  • नित मेरे घर आवत है रात गये फिर जावत है/फंसत अमावस गोरी के फंदा हे सखि साजन, ना सखि, चंदा (मुकरी/कहमुकरनी) अमीर खुसरो
  • खीर पकाई जतन से और चरखा दिया जलाय।
  • आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय। ला पानी पिला।(ढकोसला) अमीर खुसरो
  • जेहाल मिसकीं मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाय बतियाँ;/के ताबहिज्रा न दारमजां न लेहु काहे लगाय छतियाँप्रिय मेरे हाल से बेखबर मत रह, नजरों से दूर रहकर यूँ बातें न बनाओ कि मैं जुदाई को सहने की ताकत नहीं रखता, मुझे अपने सीने से लगा क्यों नहीं लेते (फारसीहिन्दी मिश्रित गजल) अमीर खुसरो
  • गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस/चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस (अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु पर) अमीर खुसरो [नोट: सूफी मत में आराध्य (भगवान, गुरु) को स्त्री तथा आराधक (भक्त, शिष्य) को पुरुष के तीर पर देखने की रचायत है।]
  • खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वाकी धार।
    जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।। अमीर खुसरो
  • खुसरो पाती प्रेम की, बिरला बांचे कोय।
    वेद कुरआन पोथी पढ़े, बिना प्रेम का होय।। अमीर खुसरो
  • खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग।
    तन मेरो मन पीव को दोऊ भय एक रंग।। अमीर खुसरो
  • तुर्क हिन्दुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब
    (
    अर्थात मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ, हिन्दवी में जवाब देता हूँ।) अमीर खुसरो
  • मैं हिन्दुस्तान की तूती (‘तूतीहिन्दुस्तान’) हूँ। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो, तो हिंदवी में पूछो, मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा।अमीर खुसरो
  • न लफ्जे हिंदवीस्त अज फारसी कम
    (
    अर्थात हिंदवी बोल फारसी से कम नहीं।) अमीर खुसरो
  • आध बदन ससि विहँसि देखावलि आध पिहिलि निज बाहू/कछु एक भाग बलाहक झाँपल किछुक गरासल राहूनायिका ने अपना चेहरा हाथ से छिपा रखा है। कवि कहता है कि उसका चंद्रमुख आधा छिपा है और आधा दिख रहा है। ऐसा लगता है मानो चंद्रमा के एक भाग को बादल ने ढँक रखा है और आधा दिख रहा है (‘पदावलीसे) विद्यापति
  • आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गये हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों कोगीत गोविन्द’ (जयदेव) के पदों में आध्यात्मिकता दिखती है वैसे हीपदावली’ (विद्यापति) के पदों में।रामचन्द्र शुक्ल
  • प्राइव मुणि है वि भंतडी ते मणिअडा गणंति/अखइ निरामइ परमपइ अज्जवि लउ न लहंति।प्रायः मुनियों को भी भ्रांति हो जाती है, वे मनका गिनते है। अक्षय निरामय परम पद में आज भी लौ नहीं लगा पाते। हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
  • पियसंगमि कउ निददडी पिअहो परोक्खहो केम/मइँ विन्निवि विन्नासिया निदद न एम्ब नतेम्बप्रिय के संगम में नींद कहाँ ? प्रिय के परोक्ष में (सामने न रहने पर) नींद कहाँ ? मैं दोनों प्रकार से नष्ट हुई ? नींद न यों, न त्यों। हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
  • जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु/तसु हउँ कलजुगि दुल्लहहो बलि किज्जऊँ सुअणस्सु।जो अपना गुण छिपाए, दूसरे का प्रकट करे, कलियुग में दुर्लभ सुजन पर मैं बलि जाउँ। हेमचन्द्र (प्राकृत व्याकरण)
  • माधव हम परिनाम निरासा विद्यापति
  • कनक कदलि पर सिंह समारल ता पर मेरु समाने विद्यापति
  • जाहि मन पवन न संचरई
    रवि ससि नहीं पवेस सरहपा
  • अवधू रहिया हाटे वाटे रूप विरष की छाया।
    तजिवा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया।। गोरखनाथ
  • पुस्तक जल्हण हाथ दै चलि गज्जन नृप काज चंदबरदाई
  • मनहु कला सभसान कला सोलह सौ बन्निय चंदरबरदाई

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