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नागार्जुन की सामाजिक चेतना पर प्रकाश डालिए?

नागार्जुन की सामाजिक चेतना | Hindistack

हिंदी साहित्य के प्रगतिशील धारा के जाने माने कवि ‘नागार्जुन’ का नाम हिंदी साहित्य में अद्वितीय है। आजादी के बाद की हिंदी कविता की प्रगतिशील धारा के तमाम रूपों और वैचारिक संघर्षों की जटिलता को उन्होंने बारीकी से रूपायित किया है। नागार्जुन ने अपने साहित्य में आम आदमी के जीवन को केंद्र बनाया है नागार्जुन की सामाजिक चेतना उनके सम्पूर्ण साहित्य में परिलक्षित होती है। उनके समस्त काव्य में हमें प्रगतिशीलता के दर्शन होते हैं। नागार्जुन का काव्य समाज सापेक्ष है मानव जीवन और उसका यथार्थ उनके काव्य में अत्यंत सार्थक रूप में व्यक्त हुआ है।

नागार्जुन का काव्य सामाजिक चेतना को प्रकट करने वाला प्रभावी काव्य है। उनके काव्य में समाज के जींवत परिवेश का चित्रण हुआ है। उनकी कविता में सर्वहारा वर्ग का चित्रण दिल को स्पर्श करने वाला है। नागार्जुन की दृष्टि में देश और जनता का हित सवोर्परि है वे साधारण जन से अलग होकर जीने की कविता लिखने की कल्पना ही नहीं कर सकते।

नागार्जुन चाहे जिस विधा मे रचना करें गरीब-शोषित समाज ही उनकी रचनाओं का केन्द्र बिन्दु है। वे देश के बिगड़ते माहौल और उसके कारणों की पड़ताल करते है उनकी कविताएं जन -जन की मुक्ति, उनके संघर्ष, उनकी सुविधा-असुविधा, उनकी जीवन पद्वति आदि की संवाहिका है। डाँ. शंभूनाथ के शब्दों में

”जनता की भूख और विलोभ को वाणी देते हुए सर्वहारा के साथ रहने -जीने,
उनके दुख -दर्द का साथी बनने की अद्भुत ललक मन मे रखने वाले जिस कवि को हम अपनी संवेदना के बहुत निकट पाते है तथा जिसे इतिहास भी चिरकाल तक जानेगा, वह नागार्जुन ही है।”(1)

नागार्जुन ने अपने समाज में निरंतर गिरते हुए मानव मूल्यों को देखा है , वे बचपन से ही बाल विवाह ,अनमेल विवाह , छूआछूत, मूर्तिपूजा, बलि-प्रथा, भूत-प्रेत पर विश्वास, विधवा समस्या, वेश्या समस्या देखते आ रहे हैं। इन समस्याओं पर लिखा जाना इसलिए स्वाभाविक है कि वे आज भी जारी है, खत्म होने का नाम नहीं लेती नागार्जुन सामाजिक चेतना सम्पन्न रचनाकार है वे लदी हुई रूढ़ियों के खिलाफ विद्रोह करते है। नागार्जुन ने किसी सीमा के दायरे मे नहीं बँधे उन्होंने जो भी लिखा बेफिक्र और बेहिचक होकर लिखा। उनकी कविताएं सीधा दिल पर चोट करती है किंतु इसके पीछे भी बहुजन का कल्याण का लक्ष्य छिपा होता है। इनकी कविताएं न केवल प्रहार करने वाली है बल्कि कर्तव्य की याद दिलाने वाली है। शोषित अपमानित जनता को जागृत करने वाली है। वे इस बात की पेशगी है  कि दलित और बेबस जनता आज नहीं तो कल अपनी बेड़ियाँ तोड़ कर ही रहेगी। यही वह आक्रोश है जो नागार्जुन को जनकवि बनाता है। नागार्जुन की कविताओं में विद्रोही तेवरों को देखते हुए डॉ. विजयबहादुर सिंह ने लिखा है

“अगर नागार्जुन की आधी ताकत, कोप एंव अभिशाप व्यक्त करने मे खर्च हो पाती तो शायद हम हिन्दी में अपना कालिदास नागार्जुन के रूप में पा लेते।”(2)

नागार्जुन को सामाजिक चेतना की दृष्टि प्राप्त है जो समाज की सारी विद्रूपताओं को उखाड़ने का सामथर्य रखती है नागार्जुन को सामाजिक चेतना की दृष्टि मिलने का कारण उनका परिवेश और सजग सृजनहार का चिन्तन है, बाबा जिस समाज मे पैदा हुए थे उस समाज की राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक विसंगतियों को देख रहे थे, समाज के उस निम्न भोली-भाली जातियों का शोषण और उन पर होने वाले अमानुषिक अत्याचार को न केवल देखा, बल्कि उनकी जिंदगी को जिया है इसी कारण उनको व्यापक अनुभव प्राप्त होता है मजदूर, सर्वहारा वर्ग के बच्चों के साथ खेलते कूदते हुए उनके अन्दर ऐसे संस्कार पैदा हुए जिसका फैलाव आगे चलकर उनकी निर्भीक लेखनी में मिलता है। संघर्ष, शोषण, धार्मिक मिथ्याडम्बर, पूँजीपतियों के प्रति आक्रोश, मानव के करूणा गान, उनके दर्द की अभिव्यक्ति, सर्वहारा से आत्मीयता का भाव नागार्जुन की सामाजिक चेतना के मानदंड है।

उन्होंने बिखरी हुई सामाजिक शक्ति को समेटा है और एकतामूलक सूत्र मे पिरोने की कीमती कोशिश की है उनकी आशाओं का केन्द्र जनता है जो उनका सबसे बड़ा भाग है। वर्तमान समाज के प्रति नागार्जुन मे विक्षोभ की अग्नि जल रही है।समाज मे अव्यवस्था फैलाने वाले तत्वों को नागार्जुन ने सूक्ष्म दृष्टि से देखा और हरेक तत्व के विरोध में बड़ी कड़वाहट के साथ आवाज उठाई है।

नागार्जुन की सामाजिक चेतना की पहली मुठभेड़ धर्म की जकड़बंदी से हुई है। समकालीन धर्म समाज के लिए कोई प्रगतिशील भूमिका नहीं निभा रहा बल्कि वह जिन्दगी में तबाही और पलायन के लिए खदेड़ता है। धर्म के नाम पर भेदभाव,आंतक,अन्याय और उत्पीड़न का सिलसिला चलता है।देश जातियों और वर्गों में बँटा चुका है धर्म की दुहाई देकर कठमुल्लों ने भारत ने भारत मे निरंतर चलते रहने वाला महाभारत रच रखा है।भारत की मौजूदा स्थिति तो ऐसी ही सांप्रदायिक स्थितियों से तनाव ग्रस्त है।धर्म को लेकर चलने वाले अत्याचार में कुबेर घराना-सम्प्रदाय और गरीब घराना-विपदाएं हासिल करता है अपने ही बनाये आचार विचार में रूढ़िबद्ध भारतीय जनमानस आकुल है।

“श्रद्धा का तिकड़म का नाता
जय हो भिक्षुक , जय हो दाता।
पियो सन्त हुगली का पानी
पैसा सच है दुनिया फानी।”(3)

नागार्जुन उपर्युक्त पक्तियों के व्यंग्य के माध्यम से यह बताते है  कि भला श्रद्धा या धर्म का तिकड़म से क्या सम्बन्ध। इन धर्म के ठेकेदारों के लिए त्याग और साधना मूल्यहीन है उसके लिए पैसा ऐठना ही धर्म का वास्तविक उद्देश्य है झूठे धर्मों का आंतक फैला कर जनता को लूटना, धर्म के ठेकेदारों का धंधा बन गया है।

नागार्जुन की सामाजिक चेतना का दूसरा निशाना नारी के प्रति दुव्यर्वहार करने वाले लोग बनते है। “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।” की प्रतिष्ठा वाली नारियों को समाज के कुत्सित वृत्ति वाले जीव विभिन्न प्रकार से पीड़ा पहुँचाते आ रहे है। “क्षणे रूष्टा, क्षणे तुष्ठा, रूष्ठा तुष्टा क्षणे क्षणे।” कहकर नारी के निर्बल पक्ष का खूब उपहास उड़ाया है। नारी को भोग की वस्तु मानकर इसका शोषण किया गया। उसे समाज से अनभिज्ञ पर्दे मे रखकर, शिक्षा से अलग करके, आर्थिक दृष्टि से मजबूर एंव परावलम्बी बनाकर शुचिता का आदर्श रखकर, पतिव्रत्य धर्म का अनुशरण कराकर समाज ने उसके साथ छल किया है नागार्जुन की कविताएं इस चालाकी को समझाती है। वे इनका शोषण बन्द करने के लिए राम के मुँह से यह आदर्श भी स्थापित कराती है।

“छूकर अब तुम्हारे दोंनो पाँव
होता राघव राम प्रतिज्ञाबद्व,
नारी के प्रति कभी न होगा क्रूर
कभी न मेरे अन्त:पुर के मध्य,
होगा षोडशियों का जमघट व्यर्थ
नहीं करूगा सपने मे भी अम्ब,
क्रय कीत दासी का भी अपमान”(4)

यहाँ जो आदर्श स्थापित करने का प्रयास नागार्जुन ने किया है ,वह एक मूल्यवत्ता को प्रस्तुत करती है नारी के प्रति क्रूरता से अलग होना तथा उसकी सारी स्वतंत्रताओं पर लगे बंधनों को खोल ,उसे समाज मे समान स्थान देने की पुष्टि करता है।

अपनी प्रत्येक कविता मे नागार्जुन सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते दिखाई देते है ,उनमें कृषक भर ही नहीं, मध्यम श्रेणी के कर्मचारी,शिक्षक, क्लर्क आदि का भी स्थान है।ये सभी शोषित वर्ग के लोग है।समाज मे आदम के साँचे गढ़ने वाले एक भारतीय स्कूल के मास्टर की दयनीय स्थिति को रेखांकित करते हुए लिखते है :-

“घून खाये शहतीरों पर की बाराखड़ी विधाता बाँचे,
फटी भीत है,छत चूती है, आले पर विस्तुइया नाचे ।
बरसाकर बेबस बच्चों पर मिनट-मिनट पर पाँच तमाचे
दुखहरन मास्टर गढ़ते है किसी तरह आदम के साँचे।”(5)

दुखरन मास्टर के मानसिक तनाव का इतना मनोवैज्ञानिक चित्रण कवि के काव्य कौशल का स्पष्ट प्रमाण है।जिस अध्यापक के पास रहने की समुचित व्यवस्था न हो और अभावों का एक लम्बा जाल उसके समक्ष फैला हो,भला वह अध्यापक समाज का कल्याण क्या करेगा?

अपने काव्य मे नागार्जुन सामाजिक विषमता को अभिव्यक्ति के केन्द्र मे रखते है।अमीर गरीब के बीच बढ़ता फैसला न केवल आदमी मे तनाव पैदा करता है, बल्कि इसम़े पूँजीवादी शोषण का रूप सामने आता है जो कि चिरकाल तक अपना आभास देता रहता है। भारत मे व्याप्त गरीबी इसी आभास का परिचायक है।

नागार्जुन की काव्य या साहित्य की भावभूमि वही है जो पीड़ित जनता की भावभूमि है। जनता के इस तबके की आवश्यकताएँ एंव आकाक्षाएं उनके काव्य की प्रमुख विषय-वस्तु है। कवि की सृजन-प्रकिया अभिन्न रूप से सामाजिक समस्याओ से जुडी़ हुई है। वे उन्मुक्त हद्वय और खुली दृष्टि से हर सामाजिक घटना को देखते है। आज हमारा समाज भुखमरी, अकाल, द्ररिद्रता, बेरोजगारी, मँहगाई, मुनाफाखोरी, अशिक्षा और भ्रष्टाचार से पीड़ित है इसी समाज मे कुछ ऐसे लोग भी है जो ऐशो-आराम के साधनों एंव मौज मस्ती के साधनों एंव मौज मस्ती के सामानों के साथ विलासिता पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे है। यही द्वन्द एंव अन्तर्विरोध आज का सामाजिक यथार्थ और सत्य को निर्भीकता और निर्ममता से व्यक्त करती है कवि नागार्जुन ने नैसर्गिक आपत्ति की मार से पीड़ित आम आदमियों की व्यथा को ‘अकाल और उसके बाद’ कविता मे गहरी मार्मिकता के साथ पेश किया है:-

“कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।”(6)

नागार्जुन ने ‘अकाल और उसके बाद’ जैसी महज आठ पक्तियों की कविता में तीखी सामाजिक सच्चाई को उजागर किया है ।अकाल की विभिषिका और घर में अन्न के दाने आने के बाद की स्थिति से लेकर छोटे-मोटे जीव -जन्तु के प्रभावित होने का भी अत्यंत मार्मिक और सजीव चित्रण किया है ।

“कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।”(6)

निष्कर्ष :

निष्कर्ष रूप से देखा जाए तो नागार्जुन का सम्पूर्ण काव्य सामाजिक चेतना को प्रकट करने वाला प्रभावी काव्य है। उनके काव्य में समाज के जींवत परिवेश का चित्रण हुआ है। उनकी कविता द्वारा सर्वहारा वर्ग का चित्रण दिल को छूने वाला है। उनका काव्य विद्रोही चेतना से भरा हुआ है।

संदर्भ सूची :

  1. नागार्जुन और प्रगतिशील साहित्य – डॉ.माधव सोनटक्के , स्वराज प्रकाशन ,नई दिल्ली , प्रथम संस्कंरण -2011, पृ.सं -125
  2. नागार्जुन का रचना संसार – डॉ विजयबहादुर सिंह , पृ.सं -97
  3. नागार्जुन -प्यासी पथराई आँखे, चौराहे के उस नुक्कड़ पर , पृ.सं -32
  4. नागार्जुन युगधारा ‘पाषणी’ पृ.सं – 42
  5. नागार्जुन – हजार हजार बाहों वाली , ‘मास्टर’, पृ.सं -168
  6. प्रतिनिधि कविताएं नागार्जुन -डाँ नामवर सिंह , राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली , पहला संस्कंरण -1984 ,पृ.सं -15

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